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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

२ ............हम नव वर्ष की प्रतीक्षा में हैं।

हम नव वर्ष की प्रतीक्षा में हैं। 
ज़ाहिर है होना भी चाहिए परन्तु प्रश्न यह है वह कौन व्यक्ति है ? 
जिसे नया हो या पुराना, ख़ुशी हो या ग़म 
कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 
महलों में रहने वाले वे धनाढ्य लोग !
जिन्हें पटाखा जलाने से फुर्सत नहीं 
अथवा 
वे जिन्हें नया वर्ष मंगलमय टाईप करने से परहेज़ नहीं !
अथवा वे 
अरे ! सुनती हो आज सौ रुपये मिल ही गए ,
मंडी में सामान ढोने का काम मिल गया। और सुनो ! 
आज रोटी के साथ तरकारी भी बना लेना।
 बहुत दिन हो गए,दर्शन नहीं किये इन दोनों के। 
चलिए अच्छा हुआ ! 
मैं भी कुछ बनाने जा रहा हूँ। 
आप भी आनंद उठाइये तंगी का ! 


स्वागत है आपका 
''लोकतंत्र'' संवाद 
पर 
( आदरणीय राकेश श्रीवास्तव 'राही' जी की प्रेरणा से )

आज के विशिष्ठ रचनाकार हैं :
  • आदरणीया शशि पुरवार 
  • आदरणीया आशा सक्सेना 
  • आदरणीय रविकर जी 
  • आदरणीया प्रीति सुराना 
  • आदरणीया अनीता लागुरी ( नवोदित कवित्री )
  • आदरणीय सुशील जोशी 




नव पीढ़ी ने रच दिया ,यह कैसा इतिहास 
बूढ़ी साँसें काटतीं ,घर में ही वनवास 



आज के माहोल में
जीवन कटुता से भरा
कहीं प्रेम न ममता 


 हरदम सुरक्षित वह रही सानिध्य में परिवार के।
घूमी अकेले कब कहीं वह वस्त्र गहने धार के।




मैं बहती ही रही हूँ ,जल सी सदा 
पत्थरों ने निभाई,अपनी भूमिका। 

 कुछ अनचाहा था....




                                                     उठा अंधेरे  का फ़ाएदा                                        
                                  बना गुनाहों की गठ्ठरी                                       
क्योंकर कोई फेंक गया था..?

हिमालय में अब सफेद बर्फ
 दूर से भी नजर नहीं आती है 
काले पड़ चुके पहाडों को 
शायद रात भर अब 

नींद नहीं आती है
कविता 
करते करते 
निकल पड़ा 
एक कवि  

हिमालयों से


धन्यवाद। 



"एकलव्य"    

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

१ .....'लोकतंत्र संवाद' का प्रथम अंक

आज बड़ा शुभ दिन है 
क्योंकि आज से ब्लॉग जगत के 
सच्चे साहित्यकारों की ख़ोज प्रारम्भ होती है। 
'लोकतंत्र संवाद'
के साथ 
तो चलिए चलते हैं 'लोकतंत्र संवाद' ब्लॉग के 
प्रथम अंक में  

सादर अभिवादन 


आज के साहित्यकार हैं :


  • आदरणीय श्याम कोरी "उदय" 
  • आदरणीय रविंद्र सिंह यादव 
  • आदरणीय विश्वमोहन जी 
  • आदरणीया रेणु बाला जी 
  • आदरणीया अनिता जी 




हम मुफलिसी के दौर के साथी हैं
कितनी ठंडें ..
कितनी बरसातें ..
कितनी गर्मियाँ ..




 आज  जलंधर फिर आया है
हाहाकार   मचाने   को 
अट्टहास   करता   है    देखो
अपना  दम्भ   दिखाने   को ...


 श्वेत श्वेत से सात अश्व से
सुसज्जित ये समय शकट है
घिरनी से घूमते पहिये पर
घटता घड़ी घड़ी जीवन घट है



शायद भूली राह - तब इधर आई -
देख हरे नीम ने भी बाहें फैलाई ; 
फुदके पात पात - हर डाल पे घूमे 
कभी सो जाती बना डाली का तकिया 



शब्दों में यदि पंख लगे हों
उड़ कर ये तुम तक जा पहुँचें,
छा जाएँ इक सुख बदली से
भाव अमित जो पल-पल उमगें !


 एक नई सोच ,एक नई शुरुआत



शनिवार, 16 दिसंबर 2017

'छोटू' साहित्यकार

'छोटू' साहित्यकार 



कहते हैं "अति सर्वत्र ,वर्जते"! अर्थात अधिकता हर स्थान पर अपने साथ दुर्गुण ही लाती है।  वह कोई भी क्षेत्र हो,अब अपने साहित्य जगत को ही ले लीजिए। वर्तमान साहित्य का यह वीभत्स रूप पुस्तकों से चलकर ब्लॉगों पर प्रदर्शित होने लगा है। 

आज साहित्य का अर्थ अधिकता व रचनाओं की संख्या से लगाई जाती है न कि उद्देश्य और सृजनशीलता से। रचनाओं का यह मापदंड एवं लेखक की आतुरता हमारे साहित्य जगत को कहाँ ले जायेगा ? आप विचार कर सकते हैं !  

अब हमारे छोटू 'साहित्यकार' को ही ले लीजिए। 

मेरी एक छोटी सी कैंटीन है, जहाँ 'छोटू साहित्यकार' भोजन परोसने का कार्य करता था। अब आपसे क्या छुपाऊँ ,मैं भी अवसर पड़ने पर कभी-कभी ,दो-चार पंक्तियाँ  लिख लेता हूँ। यह बात छोटू को पता चली। वह मेरे पास आया और बोला - मालिक आप लिखते हैं ! कलुआ बता रहा था। 

मैंने कहा ( मुस्कुराते स्वर में ) - नहीं रे ! दो-चार लाइन कभी -कभी गुनगुना लेता हूँ ,दाल में तड़का लगाते समय, हँसी -हँसी में गीत बना लेता हूँ। बस और क्या 

पुरानी फिल्मों के दृश्य देखकर 'व्यथा काव्य' जैसी नई विधाओं का सृजन कर लेता हूँ और क्या ! मैं लेखक थोड़े हूँ। 
छोटू - क्या बात करते हो मालिक ! आप तो बड़े लेखक बन सकते हैं। लेखनी में ट्राई क्यूँ नहीं करते ? सम्मान ,पैसा सभी मिलेगा। 
अरे ! आप अपने केतनवा 'बनारसी' को ही ले लीजिए ,कल तक दूसरों के गल्ले पर बैठकर चवन्नी गिनता था परन्तु आज वह एक नामचीन कलम फिराने वाला बन गया है। माल -पानी सभी एक झटके में,

दूसरे दिन बड़ी देर हो गई कैंटीन खुले छोटू नहीं आया अब तक। यहाँ ग्राहक आर्डर का इंतज़ार करते -करते चले जा रहे थे ,पता नहीं ये छोटू कहाँ मर गया ?( मैं खीजते हुए )

शाम हो गई छोटू नहीं आया। मैंने दिल को तसल्ली दी, चलो ! कल आ जायेगा ,हो सकता है कोई जरुरी काम पड़ गया हो। 
कैंटीन बंद की मैंने जुगलबंदी करते हुए और घर की ओर प्रस्थान किया,परन्तु रातभर छोटू के न आने के विषय में सोचता रहा। 
दूसरे दिन भी छोटू नहीं आया। इसी तरह हफ़्तेभर बीत गए ,छोटू के काम पर आने की कोई ख़बर नहीं आई। 
मैंने उसके घर जाकर देखने का निश्चय किया। 
रविवार का दिन था लगभग दस बजे सुबह मस्त नहा -धोकर मैंने छोटू के घर की ओर प्रस्थान हेतु डग भरे। 
पहुँचने पर दरवाज़ा खटखटाया कई दफ़ा 

छोटू ,अरे ! भाई छोटू कहाँ है ?

जीवित है या अंतिम विदाई ले ली। 
कुछ देर बाद आँख मींचते -मींचते छोटू ने दरवाज़ा खोला। 
बाल बिखरे  ,दाढ़ी बढ़ी ,प्रतीत हो रहा था कई दिनों से नहाया न हो ! घर में सामान तितर -बितर ,लगता था घर में पड़े सामानों से ज़बरदस्त दुश्मनी निकाली गई हो। 
कूड़ेदान में कागज़ों के लडडू बना-बनाकर फेंकीं गईं थीं। एक पुराना लैपटॉप बिस्तर पर गोते खा रहा था ,कह रहा था, मानो बस करो ! बहुत हो चुका ,मेरा पीछा छोड़ दो !

मैंने पूछा ( गुर्राते हुए )- क्यों रे ! सप्ताहभर से कैंटीन क्यूँ नहीं आया , नौकरी नहीं करनी क्या ? 
छोटू (अंगड़ाई लेते हुए ) - अरे सेठ जी अब मैं छोटू नहीं रहा !
मैंने कहा - क्यूँ गधा -घोड़ा बन गया क्या ?
छोटू ( हँसते हुए ) - नहीं सेठ जी ,अब मैं लेखक छोटू 'साहित्यकार' बन गया हूँ। 
मैंने बोला ( सोचते हुए ) - मेरी नज़र में तो कोई किताब तेरी लिखी नहीं आई,तो तूँ लेखक कब बन गया ?

छोटू ( ऐंठते हुए ) - हफ़्तेभर में सेठ जी 
मैंने ( आश्चर्य से ) - वो कैसे ?
छोटू ( गर्व से ) - अब मैं ब्लॉगर हो गया हूँ। बहुत लोग मुझे पढ़ते हैं ऑनलाइन, और तो और मेरी रचनाओं को सबको पढ़ने के लिए भी कहते हैं।   
मैंने ( आश्चर्य से ) - हफ़्तेभर में !
छोटू ( घमंड से ) - हाँ जी ,सेठ जी
मैंने ( उत्सुकतापूर्वक ) - अभी तक कितनी रचनायें लिखीं ?
छोटू - यही कोई चार-पांच सौ  !
मैंने ( जिज्ञासा पूर्वक ) - ज़रा नाम तो बता अपनी रचनाओं के ! 

छोटू ( प्रसन्न होकर ) - टमाटर की बारात ,टमाटर की सुबह, भिंडी की शाम , जिस मन में लौकी रहता है ,बैंगन का स्वप्न ,साँझ की तरकारी ,मटर की सगाई ,सब्जियों में भ्रष्टाचार ,तीखा आम का अचार ,करवा चौथ की सब्ज़ी ,दीपावली का भर्ता ,होली की गुझिया ,सूरन की प्यारी बहना 
और भी बहुत सी रचनायें जो मैंने लिखीं हैं। अरे ! अभी तो भ्रष्टाचार पर भी लिख रहा हूँ ,कुछ राजनीति पर और कुछ मज़दूरों व किसानों पर। 

मैंने ( बड़े आश्चर्य से ) - पर तूँ तो घर से निकल नहीं रहा ,घर में पड़े -पड़े कैसे अनुभव हो गया इन सब बातों का ?
छोटू ( व्यंगात्मक स्वर में ) -अरे सेठ जी ! बड़े भोले हो आप ,बाहर निकलने की फुर्सत कहाँ है। बस न्यूज़ पेपर ,बाकि सब ख़बरें ऑनलाइन 'गूगल बाबा' पर मिल जाती हैं। 

मैंने ( हँसते हुए ) - तुझे पढ़ता कौन है ? तूँ तो नया -नया लेखक बना है। 
छोटू ( घमंड में ) - अरे ! ब्लॉग पर मुझे बहुत मानते हैं लोग। ( 'तूँ मेरी पीठ थपथपा ,और मैं तेरी' के सिद्धान्त पर ) मेरा कमेंट बॉक्स (बहुत सुन्दर ! ,वाह ,बहुत ख़ूब जैसे शब्दों से )हमेशा शतक लगाता है ( इतराते हुए ) और तो और कुछ दिनों में ऑनलाइन पैसे भी कमाऊँगा ! 

मैं ( चिंतन पूर्ण रवैया अपनाते हुए )- आलोचनारहित साहित्य ! ये कैसा साहित्य है, जहाँ आलोचना की कोई जगह नहीं ? ख़ैर 
छोटू ( ऐंठते हुए ) -क्या बात करते हो सेठ जी ! दूसरों को अपनी रचनायें भी तो पढ़वानी हैं। वो कहाँ जायेंगे ? तो कैसी आलोचना !  

तो कुल मिलाकर बात ये है सेठ जी मैं अब आपकी 'वेटरगिरि' नहीं करूँगा ! क्योंकि अब मैं ब्लॉग जगत में छोटू 'साहित्यकार' के नाम से जाना जाता हूँ। 


 तो ये है वर्तमान जगत का अनोखा 'साहित्य जगत' व्यंगपूर्ण पर कटु सत्य ! आज भी एक सच्चे साहित्यकार की ख़ोज अनवरत ज़ारी है इन छोटू 'साहित्यकारों' की भीड़ में       

" कर रहा रौशन मशालें 
विश्वास हो तो साथ दे 
कुछ नशे में चूर बैठे 
होश हो तो बात दे " !


"एकलव्य"