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सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

३३.......एक 'प्रयोगवादी' व्यक्तित्व का परिचय

'आज का मानव' विकास के क्रमिक, 
चरणबद्ध उत्तरोत्तर प्रगति का एक जीता-जागता 
अप्रतिम नमूना है। समस्त मानवजाति सदैव ही इस क्रमिक विकास का पक्षधर रहा है हालाकि ' अपवाद' भी हमारे समाज का एक अहम हिस्सा रहा है। परन्तु अपवादों को दरकिनार कर हम मानव जीवन की उत्पत्ति से आज तक के क्रमिक इतिहास का अध्ययन करें, तो हम पायेंगे कि विकास परिवर्तन की मांग करता है न कि एक ही विचार को आगामी भविष्य हेतु निरंतर अग्रसर करते रहना यह चाहे साहित्य जैसे प्रतिष्ठित क्षेत्र में ही क्यों न हो। हाँ इसकी भी एक शर्त है कि पहल कौन करता है ?
आज 'लोकतंत्र' संवाद मंच ऐसे ही एक व्यक्तित्व से आपका परिचय करवाने जा रहा है जो एक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सुधा' के संपादक व स्वयं भी एक सशक्त लेखक के रूप में कई कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। वर्तमान में अपनी पत्रिका 'साहित्य सुधा' के माध्यम से नवोदित लेखकों को एक उचित मंच प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं। 
परिचय 
आपका जन्म दिल्ली में 1952 में हुआ था ।
 कविता लिखने का शौक बचपन से ही रहा है,
 शायद 14-15 वर्ष की उम्र से ही। दिल्ली से विज्ञान में स्नातक तक 
की पढाई करने के बाद आपने अपनी कविता में निखार लाने के 
लिए हिंदी में एम.ए. किया और फिर पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की ।
 1972 में सरकारी नौकरी शुरू करके 2012 में निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। इस बीच अनेकों कविताओं की रचना की, जिन्हें इनके ब्लागों https://anilchadah.blogspot.com, https://anubhutiyan.blogspot.in पर पढ़ा जा सकता है। इनकी रचनायें साहित्यकुञ्ज, शब्दकार एवं हिन्दयुग्म जैसी ई-पत्रिकाओं के अतिरिक्त सरिता, मुक्त, इत्यादि पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं । हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिये और उन साहित्यकारों को, जो साहित्यरचना में योगदान करने के बावजूद अनजान ही रह जाते हैं, एक मंच देने के लिये उन्होंने एक हिंदी वेबपत्रिका साहित्यासुधा प्रारम्भ की है। 

 'लोकतंत्र' संवाद मंच आज के
 'सोमवारीय' साप्ताहिक अंक में 
आदरणीय डा. 'अनिल' चड्ढा जी का 
स्वागत करता है और इनके अथक प्रयास का 
परिणाम 'साहित्य सुधा' पत्रिका जो हमारे समक्ष साहित्य 
जगत के  भविष्य में कीर्तिमान स्थापित करने वाले नवोदित लेखकों को एक खुला मंच प्रदान कर रहा है, को शत -शत नमन करता है।

तो चलिए
चलते हैं आज के इस नये सफर में 

इश्क़ की गुहार किससे करें


 मेरा है , मेरा है , सब मेरा है
इसको निकालो उसको बसाओ

 तुम्हारे दिव्य रूप के मोहपाश में
बँधने से नहीं बच पाई मैं

क्यूँ भटकती रहती हो ?
हो गया हादसा
नहीं रही तुम

भूल गए क्यों नहीं करने थे,इनोवेशन 


उसने दिए थे हीरे हम कौड़ियाँ समझ के
जब नींद से जगाया रहे करवटें बदलते

 शहरों की बात ही अलग है
अपनी ही धुन में भागे जाते हैं
और तो और…..,


 मरी इच्छाएँ
आज फिर जी उठी
तुम्हें निहार

 'किस लुत्फ़ से झुंझला के वो, कहते हैं शबे-वस्ल,
ज़ालिम ! तेरी आँखों से, गयी नींद कहाँ आज?'
मेरी तरफ़ से एक संशोधित सवाल -

शायद नहीं था पता उसे गंतव्य का 

 मैं मन ही मन में गढ़ती हूँ,
पूजा करने उस मूरत की
मैं दीपाशिखा-सी जलती हूँ !

 निराला के शब्‍द-क्रीड़ांगन में यमुना-गान
बहरहाल इस अवसर पर उन्‍हें याद करते
 हुए हम ब्रजवासी उनके अत्‍यंत आभारी हैं क्‍योंकि 
उन्‍होंने ''यमुना के प्रति'' लिखकर हमारी आराध्‍या यमुना 

 फागुन मास   में उस साल -
मेरे आँगन की क्यारी में ,
हरे - भरे चमेली के पौधे पर -

 कुछ इतनी खुशकिस्मत नहीं
वो फुटपाथ पर ही जन्म लेकर वही मर जाती है

 विषपान किया जब जीवन का,
तब ही जी पाया है मानव,
जीवन के ज्वाला में जल जल,

 कल वे हो जायेंगे विदा
और परसों भूल जायेंगे उन्हें लोग
इस तरह जैसे कि कभी था ही नहीं

 सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं

  साझा संकल्प तो यही लिया था
कि,मार देंगे
संघर्ष के गाल पर तमाचा

 अवांक्षित अवशिष्ट को परे कर
ओ वंसत ! तुम्हें जी भर जीना चाहती हूँ..

 बारह में बसा है बस हाल का हाल ,
तीन में दिखते हैं प्रेम के तीनों काल। 

 बस बहार का रस लेने,
बगिया में विहार को आए थे,
फूलों की महक के नशेमन वे,

१-खेतों में आई बहार
पौधों ने किया नव श्रंगार
रंगों की देखी विविधता
उसने मन मेरा जीता |

   आज फिर आके ख्वाबों में तूने
मेरे सपनों में खलल डाला है।

 चराग़-ए-आरज़ू  
जलाये रखना, 
उम्मीद आँधियों  में  
बनाये रखना। 

 एक छोटा-सा  अदना-सा हाथी हूँ
पर बात पते की करता हूँ..!!
रहूँ  किताबों में सुरक्षित


 आदरणीय 'विश्वमोहन' जी 

 टीपें
 अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार,
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।




 सभी छायाचित्र स्रोत : साभार गूगल
 

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