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सोमवार, 14 मई 2018

४५ ......डर लगता है माँ ! अँधेरों से आज भी

'माँ' एक ऐसा पवित्र शब्द जिसकी व्याख्या करने में संभवतः हमारे शब्दकोष भी पूर्ण नहीं ! कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या केवल माँ पर एक कविता लिख देना ही हमारे समर्पण का द्योतक है अथवा उसके तारीफ़ में कुछ कह देना।  चलिए छोड़िए ! क्या रखा है इन औनि-पौनी बातों में। आज मेरे पास न कोई व्यंग है और न कोई तीख़ी टिप्पणी शेष हैं तो केवल वे अनमोल स्मृतियां जो कभी-कभी सपनों में यूँ ही आ जाया करती हैं। माँ की अनमोल स्मृतियां मेरे बचपन की !

र लगता है माँ ! अँधेरों से आज भी
जब तू छोड़ जाती थी कहकर यह
आती हूँ भरकर पानी अभी
पास के उस सूखे कुँए से।
रंज मन में है बिखरा पड़ा
न आई तू, पिलाने ही पानी
उस सूखे कुँए का
जहाँ तू जाती रही, मैं निहारता रहा
उसी कम्बख़्त सूखे कुँए को।
( 'एकलव्य' )   
'लोकतंत्र' संवाद मंच आपसभी का हार्दिक स्वागत करता है। 
'लोकतंत्र' संवाद मंच आज के अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक की इस कड़ी में तीन अतिथि रचनाकारों और उनकी रचनाओं का हार्दिक स्वागत करता है।

आदरणीया पुष्पा मेहरा जी की कलम से

कामना 
ओ एक सुंदर सपना देखें
 उगता सूरज देखें ,अँधेरी रातों की
 मुस्कान देखें ,हँसते चाँद से खुशियाँ सीखें 
 फूलों सा खिलना सीखें |
 भुला दें विघटन ,विनाश ,मिसाइलों का ताण्डव ,
 भुला दें घने अँधेरे की चपेट में आ
 अपना सब कुछ खो देना ,
 आओ ! सूर्य की किरण –किरण
 गले से लगा लें और
 चाँद की शीतल चाँदनी बन
 चतुर्दिक फ़ैल जाएँ ,
 आओ !सारा प्रेमरस अँजुरी में भर लें |   

आदरणीय  विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' जी की कलम से
'माँ' 
भी वो हाथ
सुकोमल से
फैरती थी
मेरे सर पर
तो मैं कहता
माँ ! क्यूँ बिगाड़ती हो मेरे बाल
समझ नहीं पाता था
उसके भाव
पर, आज वो ही हाथ
सूखकर पिंजर हो गये
अब मैं चाहता हूँ
वो मेरे सर पर
फिर से फैरे हाथ
चाहे मेरे बाल
क्यों ना बिगड़ जायें
बस, ये ही तो अंतर है
बालपन में
और आज की समझ में |
पर अब माँ
बिगाड़ना नहीं चाहती
सिर के बाल
वो चाहती है
मैं ,बैठूँ उसके पास
देना नहीं, लेना चाहती
मेरा हाथ अपने हाथ में
बिताना चाहती है कुछपल
बतियाना चाहती मुझसे,
पा लेना चाहती है,
      अनमोल निधि जैसे...

आदरणीया  मोनिका जैन 'पंछी' जी की रचना

 जब मैं सुनती हूँ

ब मैं सुनती हूँ
तो सिर्फ तुम्हें सुनती हूँ।

तुम्हारे शब्द-शब्द को
आत्मसात करता मेरा मन!
नहीं होती कोई अधीरता
नहीं होती आगे जानने की
उत्साह भरी प्रतीक्षा
और न ही ऊब से भरी नीरसता ही।

नहीं होता कोई प्रशंसा का भाव
नहीं होती कोई आलोचना
और न कोई सलाह या
मशविरा ही।

मूल्याङ्कन की गणित से
कोसों दूर
नहीं निकालती
मैं कोई भी निष्कर्ष!

जब मैं सुनती हूँ
तो सिर्फ तुम्हें सुनती हूँ।


 स्वागत है आपका इन रंग-बिरंगी रचनाओं के संसामें 

 रह-रहकर माँ  क्यों  याद आ रही थी...
पिछले बरस ही तो आई थी  मेरे पास
दिनभर जाने क्या-क्या करती...

 माँ की ममता   
नाप सके जो कोई   
नहीं क्षमता।

 चिंतित माँ की चौकीदारी क्या समझेंगे ?  
र निंदा ,उपहास में, रस तलाशने वाले 

व्यथित पिता की हिस्सेदारी क्या समझेंगे ?

 देखे बहुत हैं
 पने हुश्न पे ना तुम इस कदर भी इतराओ

इन आँखों ने भी यहां देखी हसीनाएं बहुत हैं।

 एक तस्वीर
 गुलाबी सा नशा है उनका भी 
रात बीतती है इंतजार में उनके
और दिन ख्वाब  में उनके ही 
बंद आंखों में नशा  ए इज़हार है  

माँ 
 कहे बिना बूझ ले
अंतर के प्रश्नों को,
अंतरमन से सदा

प्रीत धार बहती है !

एक चिट्ठी 
 गर्मी की छुट्टियों की दोपहर
और मेरे गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह में ।
मुझे तुम्हारी टोका-टाकी

अच्छी नही लगती थी ।।

  सोनिया नौटियाल गैरोला की कविताएं 
 बात रेशम के धागों सी
फिसलती रही
शब्द ताने-बाने से

गाँठें उलझती रही ।

 'हाय मेरे हिज्र के दिन, क्यूँ मुझे धोखा दिया, 
ऐन दिलचस्पी का आलम था, उन्हें बुलवा लिया?'

 वर्णों की यायावरी
‘शब्द’ परेशान हैं
‘व्याकरण’ खीझता सा खड़ा है
‘भाव’ व्यथित-हैरान है
कल दिखा ‘ख’ वर्ण

खंजर लिए हुए

  अर्श पे दर्ज एहकाम ..
 जमाने की जद में हम कुछ और बढ गए
अब रक़ीबो  को एहतिराम करते कितनी 
सुब्हो- शाम हुई

 माँ, सुन रही हो न......
 ह.
ईश्वर भी!
सुनते है, 
तुमको भी,
उसीने रचा है!
फिर! 

 मेहमान को जूते में परोसी मिठाई.....
म्भ और आक्रामकता में डूबा 
एक अहंकारी देश 
भूल गया है 

 कल रात वो लड़की बहुत याद आई...

ल रात एक सांवली सी लड़की बहुत याद आई 

मैं चुपके से फिर एक बार अपने बचपन में लौट आयी. . 

शहर 

 हर ..... ही शहर है,
फैला हुआ,
जहाँ तलक जाती नजर है 
शहर ..... ही शहर है|

रोज़ रोज़ कुछ....

 रोज़ रोज़ कुछ मिटना होता है,
रोज़ रोज़ कुछ पिटना होता हैI

 देशवा  (भोजपुरी कविता )
साहब साहब कहके पुकार मत बाबू
जेके देहले रहले वोट उहे ना बा काबू
खेल बा सब सत्ता के और
नेता हो गईल बाड़े बेकाबू


आदरणीया व्योमसोनी जी की आवाज़ में 



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'एकव्य' 


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