साहित्य की एक अनमोल और तर्कसंगत विधा 'व्यंग' मुर्दे में भी प्राण फूँकने में सक्षम है। व्यंग की वो निर्मल धार जिसमें जो नहाये सीधे स्वर्ग के दर्शन पाए। सारे कष्टों से निवृति यही है इस अनोखे व्यंग की प्रवृत्ति ! साहित्य में इस विधा के चाहने वालों की कमी नहीं, गाहे-बघाये टकरा ही जाते हैं परन्तु अफ़सोस ! समकालीन लेखक बन्धु इस विधा से मानों दुश्मनी ही पाल बैठे हैं। बचे-खुचे हमारे प्रकांड अन्तर्यामी लेखक अनुचित भाषा का श्रीगणेश करते नजर आ रहे हैं। न ही वो कटाक्ष में मीठापन और न ही आलोचनाओं में वो नमकीन क्रैकजैक का स्वाद ! अरे हाँ ! एक्का-दुक्का हमारे व्यंग के वीर किसी गिर के जंगलों में यदा-कदा दर्शन दे ही देते हैं। बातों को नज़ाकत के साथ चाट वाले दोने में परोसना प्लास्टिक की चम्मच के संग और कहीं-कहीं लाल मिर्च का पाउडर तो वहीं खट्टी-मीठी इमली की चटनी ! यदि आप इस विधा को आत्मसात करने के तनिक भी इच्छुक हैं तो आज हमारे परम आदरणीय गोपेश
मोहन जैसवाल जी जैसे व्यंगकार से मिलें ! कन्फ्यूज मत होइगा ! ये लोगों के फटों में केवल व्यंग के बाण ही नहीं चलाते बल्कि लोगों के हृदय में प्रेम की अविरल गंगा भी बहाते हैं। एक हरफ़नमौला जिंदादिल इंसान और उम्दा लेखक जो कभी-कभी स्वयं पर भी व्यंग कसने से कतई नहीं कतराते। ऐसे ही हैं हमारे व्यंग सम्राट आदरणीय गोपेश जी।
'लोकतंत्र' संवाद मंच
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक
परिचय श्रृंखला में आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी का हार्दिक स्वागत करता है।
'लोकतंत्र' संवाद मंच
अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक
परिचय श्रृंखला में आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी का हार्दिक स्वागत करता है।
एक अनूठा परिचय : इन्हीं के शब्दों में
नाम: गोपेश मोहन जैसवाल (चालीस साल पुरानी फ़ोटो वाले)
जन्म - दो दिसम्बर सन् उन्नीससौ पचास. (02-12-1950)
शिक्षा - एम. ए.( मध्य कालीन एवम् आधुनिक भारतीय इतिहास विभाग, लखनऊ विश्व विद्यालय में सर्वोच्च
स्थान ), पी.एचडी.
पेशा – मुदर्रिसी. पहले पांच साल लखनऊ विश्व विद्यालय में, पर वहां देशभक्तों की कृपा दृष्टि पड़ने के तथा सड़क पर आने के बाद लगभग इकत्तीस साल कुमाऊं विश्व विद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में, इतिहास विभाग में अध्यापन.
प्रोफ़ेसर के पद पर अवकाश प्राप्ति के बाद पिछले 6 वर्षों से ग्रेटर नॉएडा में स्थायी निवास.
प्रेम प्रसंग - पहला प्यार,- साहित्य चर्चा, दूसरा प्यार - सियासतदानों को कोसना, तीसरा प्यार - फिल्में, चौथा प्यार - टीवी पर क्रिकेट मैच देखना, पांचवां प्यार – अपने परिवारजन से.
छठा प्यार - छींटाकशी.
और सातवें प्यार की कभी हिम्मत ही नहीं हुई.
रचनाएं – ‘कलियों की मुस्कान’ ( बाल कथा संग्रह ) अप्रकाशित. ‘तिरछी नज़र’ (कहानी संग्रह) अप्रकाशित, ‘बावन पत्ते’ (काव्य संग्रह) अप्रकाशित.
‘स्वतंत्र भारत’, ‘जनसत्ता’, ‘ पींग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ तथा ‘भाषा’ में कविताएं, कहानियां तथा लेख प्रकाशित. रचना सागर पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली की कक्षा 7 तथा 8 की कक्षाओं हेतु हिंदी की सहायक पुस्तिका – ‘महक’ में बाल-कथाओं का प्रकाशन.
आकाशवाणी अल्मोड़ा से कहानियां, कविताएं, नाटक, प्रहसन, रूपक तथा वार्ताएं प्रसारित.
मेरे संस्मरणों में मेरे बचपन से लेकर मेरे अवकाश ग्रहण तक की यादें संकलित हैं.
ब्लॉग – tirchhii-nazar.blogspot.com
कुछ यादें :
बहुत साल पहले, जब मेरी छोटी बेटी रागिनी करीब साढ़े चार साल की थी, मैं दिल्ली गया था और उसे जून की तपती दोपहरी में, बस की तलाश में, अपने साथ लेकर पैदल ही जा रहा था. तभी बाप-बेटी के बीच ये सवाल-जवाब हुए थे.
शाश्वत प्रश्न
पिघले कोलतार की चिपचिप से उकताई,
गर्म हवा के क्रूर थपेड़ों से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त, सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते.
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती, धुआं उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा.
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे.
स्थिति का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, सांसे भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
‘पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं?’
कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया.
उठा लिया उसको गोदी में,
हंसते-हंसते उससे बोला -
‘होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है.’
यूँ बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह.
काँधे से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते,
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
‘पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं?’
तीस साल पहले -
वतन की इस तरक़्क़ी का, कोई सानी नहीं होगा,
सभी गांवों में कम्प्यूटर, मगर, पानी नहीं होगा.
दस साल बाद -
वतन की इस तरक़्क़ी का, कोई सानी नहीं होगा,
बुलेट हर गाँव में, लेकिन, कहीं पानी नहीं होगा.
कफ़न ओढ़ कर सो जाने दो –
तेरे मुर्दे
मेरे मुर्दे
गड़े हुए या उखड़े मुर्दे
देसी या परदेसी मुर्दे
लोकसभा में उछले मुर्दे
राज्यसभा में मचले मुर्दे
परिचर्चा में आए मुर्दे
अख़बारों में छाए मुर्दे
राजनीति के मोहरे मुर्दे
वोट बैंक के चेहरे मुर्दे
झूठे दावे, झूठे वादे
छल, फ़रेब से भरे इरादे
धोखे में, उन्तालिस मुर्दे
सदमे में, उन्तालिस मुर्दे
अपनी सदगति को ये तरसें
बेबस औ लावारिस मुर्दे
रहम करो इन पर थोड़ा सा
इन्हें बक्श दो अब थोड़ा सा
कफ़न ओढ़कर सो जाने दो.
इन्हें दुबारा मर जाने दो.
'लोकतंत्र' संवाद मंच
आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी के प्रखर लेखनी को नमन करता है।
चलिए ! चलते हैं आज की कुछ चुनिंदा रचनाओं की ओर
किताब के पन्ने पलटना
होता कठिन काव्य का प्रेत
निगाहों की हलचल
इस हद तक बढ़ जाती है
हँसी के ठहाके गूँजा करते थे जिन गलियों में
अब हाल यूँ की सारी सड़कें सुनसान हो गयी
अब हाल यूँ की सारी सड़कें सुनसान हो गयी
जिस दिन तुम खिलकर फूल बनो,
वह मधु सेवन करने आएगा
यह नित दिन ऐसे ही होगा
गीत मधुर गा रहे
पवन के नर्म झोंकों से
लहराते शाखाओं पर झूलते
अमलतास के पीले पीले फूल
बेताब हो रही
मैं कुछ मन से चाहूँ
ज़िन्दगी उसे मुझसे छीने,
मैं हार कर गिर जाऊं
और ज़िंदगी मुझपे हंसने लगे.
बेच डाला घर किराएदार ने
रूह तक कब्ज़ा किया व्यापार ने
एक अजीब सा स्वप्न देखा,
वह एक नदी के तट पर है, उस पार से एक
छोटी सी नौका में बैठकर एक नन्हा सा बच्चा उसके पास आता है।
फिर कहता है -
छोड़
तू किसी और की, कोई एक अच्छी जुबानी बता
मैं एक चुका हुआ ख्याल हूँ
तू क्यूँ उम्मीद की गाँठ बाँधता है।
वानर-न्याय -
डंडी मार तराजू लाकर,
बन्दर अब, इंसाफ़ करेगा.
उन शाखोँ पर फिर से पत्ते नहीँ आये
जो काट डाली थी तूने अपने हाथ से
वह क्यारियाँ तरसीँ फिर हरी पौध को
शायद हम एक ऐसी दुनिया से विदा लेंगे जहाँ,
कातिल ख़ुद से ही बरी कर लेता है ख़ुद को.
जज ख़ुद को ही बर्ख़ास्त कर लेता है.
सहमति हो किसी बात के लिए भी ।
संभव नहीं ये किसी के लिए भी ।।
दुनिया सजती अपनेपन से
रूठे अपने, उसे मना ले
हीरे, मोती भी पत्थर हैं
सदा प्यार का ही गहना ले
बदल डालें
सब इमारतों,गलियों,शहरों, सड़कों, संस्थानों के नाम,
लिख दें बस अपने-अपनों के नाम।
आओ!
बदल डालें
टीपें
अब 'लोकतंत्र' संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
'एकलव्य'
अब 'लोकतंत्र' संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार'
सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित
होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आज्ञा दें !
'एकलव्य'
उद्घोषणा
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
'लोकतंत्र 'संवाद मंच पर प्रस्तुत
विचार हमारे स्वयं के हैं अतः कोई भी
व्यक्ति यदि हमारे विचारों से निजी तौर पर
स्वयं को आहत महसूस करता है तो हमें अवगत कराए।
हम उक्त सामग्री को अविलम्ब हटाने का प्रयास करेंगे। परन्तु
यदि दिए गए ब्लॉगों के लिंक पर उपस्थित सामग्री से कोई आपत्ति होती
है तो उसके लिए 'लोकतंत्र 'संवाद मंच ज़िम्मेदार नहीं होगा। 'लोकतंत्र 'संवाद मंच किसी भी राजनैतिक ,धर्म-जाति अथवा सम्प्रदाय विशेष संगठन का प्रचार व प्रसार नहीं करता !यह पूर्णरूप से साहित्य जगत को समर्पित धर्मनिरपेक्ष मंच है ।
धन्यवाद।
आप सभी गणमान्य पाठकजन पूर्ण विश्वास रखें आपको इस मंच पर साहित्यसमाज से सरोकार रखने वाली सुन्दर रचनाओं का संगम ही मिलेगा। यही हमारा सदैव प्रयास रहेगा।
सभी छायाचित्र : साभार गूगल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आप सभी गणमान्य पाठकों व रचनाकारों के स्वतंत्र विचारों का ''लोकतंत्र'' संवाद ब्लॉग स्वागत करता है। आपके विचार अनमोल हैं। धन्यवाद